आज़ादी से पहले की सामाजिक स्थिति ऐसी थी कि दलित समाज के लोगों को शिक्षा का अधिकार नहीं था. इसके बाद अंग्रेज़ों के शासनकाल में स्थितियाँ कुछ बदलीं और एक मुक्त शिक्षा व्यवस्था लागू हुई. इससे कुछ लोगों को लाभ मिला था.
आज़ादी के बाद इस बात को स्वीकार किया गया और इस दिशा में नीति बनाने की ज़रूरत भी महसूस की गई.
दो तरह की शिक्षा नीति बनाई गईं. एक तो इस बात पर आधारित थी कि इतिहास में जो वर्ग शिक्षा से वंचित रहे हैं उन्हें आरक्षण के माध्यम से मुख्यधारा में आने का अवसर दिया जाए. इसे उनकी जनसंख्या के आधार पर तय किया गया.
दूसरी तरह की नीति के तहत ग़रीब और पीछे छूटे हुए लोगों के लिए छात्रवृत्ति, किताबें और अन्य रूपों में आर्थिक मदद जैसी व्यवस्था की गई.
यह भी देखा गया कि कई बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद आर्थिक चुनौतियों के कारण शिक्षा से अलग हो जा रहे हैं और माध्यमिक और उच्च शिक्षा से वंचित रह जा रहे हैं. इसके लिए उन्हें छात्रावासों की और छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की गई.
कोई भी राजनीतिक दल हो, सभी ने दलितों की शिक्षा को महत्व दिया है.
चिंता
इस तरह के प्रयासों की वजह से हम पाते हैं कि शिक्षा का ग्राफ तेज़ी से ऊपर गया है पर जनसंख्या के अनुपात से देखें तो अभी भी दलितों का साक्षरता प्रतिशत औरों की अपेक्षा कम है.
ऐसा ही उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले छात्रों में भी देखने को मिलता है. वहाँ प्रवेश दर 10 प्रतिशत है पर अनुसूचित जातियों के लिए पाँच प्रतिशत ही देखने को मिल रहा है.
इसकी एक वजह नीतियों के लागू होने को लेकर भी है पर यह केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं है बल्कि सभी क्षेत्रों में नीतियों के लागू होने को लेकर कुछ चुनौतियाँ और कुछ खामियाँ हैं.
बल्कि शिक्षा को बाकी नीतियों की तुलना में देखें तो यहाँ लागू करने की समस्या कुछ कम हैं.
आजादी के बाद शिक्षा में आरक्षण की नीति के कारण उच्च शिक्षा में भी देखें तो दलितों के वहाँ पहुँचने में कुछ तो प्रगति हुई है पर फिर भी इस बात से मैं सहमत हूँ कि कई तरह की सुविधाओं के होने के बावजूद आईआईटी और आईआईएम या उच्च शिक्षा में उनका प्रतिनिधित्व उतना नहीं है जितना कि होना चाहिए था.
इसकी वजह ग़रीबी, सामाजिक विभेद, आर्थिक चुनौतियाँ और घर का माहौल भी हैं. इसकी वजह से और वर्गों की तुलना में इस वर्ग से एक छोटा सा तबका ही उच्च शिक्षा में जा पाता है.
उच्च वर्गों से ज़्यादा तादाद इसलिए है क्योंकि उन्हें सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा इसकी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जिसका उन्हें लाभ मिलता आया है.
सुधार की दरकार
मेरी अपनी राय है कि शिक्षा नीति को और प्रभावी बनाने के लिए कोठारी आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए. सामान्य शिक्षा की व्यवस्था लागू हो. गुणवत्ता के स्तर पर सभी को एक जैसी शिक्षा उपलब्ध कराया जाए. कोठारी आयोग ने इस पर काफी बल दिया था.
आप देखें कि जो केंद्रिय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय विद्यालय हैं. जो सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, गांव में जो मेरिट वाले बच्चे हैं उनके लिए नवोदय स्कूल हैं, और सामान्य बच्चों के लिए नगर निगम के स्कूल हैं. प्राइवेट की तो बात ही नहीं कर सकते, उनमें अंतरराष्ट्रीय मानकों तक के आधार पर पढ़ाई हो रही है.
इससे एक तरह की असमानता हम लोगों ने ही पैदा कर दी है. समाज का एक विशेष आर्थिक पहुँच वाला व्यक्ति ही अपने बच्चों को यह शिक्षा दे पा रहा है और बाकी के लिए सरकारी पाठशालाएं हैं.
हम अच्छे स्कूलों को ख़त्म न करें पर आम लोगों के लिए उपलब्ध शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक से लेकर सामग्री तक सुधार तो लाएं ताकि ग़रीब तबका और दलित समाज के बच्चे औरों के सामने खड़े तो हो सकें.
उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधारने की ज़रूरत भी है और सरकार को इसका अहसास भी है.
ऐतिहासिक कारणों से पिछड़े वर्ग जैसे आदिवासी, दलित, महिलाएं, अल्पसंख्यक और फिर ग़रीब व्यक्ति, इन सभी को शिक्षा में समान अधिकार दिए जाने की ज़रूरत है. जिन दलित की स्थिति सुधरी है उन्हें भी शिक्षा में समान अधिकार तो मिलने चाहिए पर आर्थिक सहूलियतें उन्हें ही देनी चाहिए जो कि ग़रीब हैं.
मूल्य आधारित शिक्षा
एक बात जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, वह है मूल्य आधारित शिक्षा की. मैं देख रहा हूँ कि औपचारिक शिक्षा तो छात्रों को मिल जाती है पर नैतिक और सामाजिक शिक्षा नहीं मिल पा रही है.
आरक्षण और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों को वैज्ञानिक तरीके से देखने की ज़रूरत होती है पर वो नहीं हो पा रहा है. इन मुद्दों पर होने वाली प्रतिक्रिया अक्सर विपरीत होती है.
प्रत्येक विद्यार्थी चाहे किसी भी विषय का हो, उसे यह मालूम होना चाहिए कि हमारे समाज की मूलभूत समस्याएँ, ग़रीबी, लिंग आधारित विभेद, जाति विभेद, शोषण और बहिष्कार जैसी समस्याओं का उन्हें एहसास होना चाहिए.
अगर सामाजिक व्यवस्था की इन सच्चाइयों का अहसास हम उन्हें करा देते हैं तो इन समस्याओं की ओर देखने का या उन्हें नज़रअंदाज़ करने के नजरिए में बदलाव आएगा.
वैचारिक मतभेद हो सकते हैं पर इनपर वे सकारात्मक रूप से सोच सकेंगे समस्या तो यह है कि आज के शिक्षितों में से कई लोगों को समाज और देश की समस्याओं की समझ ही नहीं है.
हम देखते हैं कि आज भी समाज के शिक्षित वर्ग में समाज और देश की समस्याओं को समझने की सकारात्मक दृष्टि का अभाव है.
शिक्षा के समान अवसर, आर्थिक सुरक्षा, मूल्य आधारित शिक्षा, सामाजिक. सांप्रदायिक और लिंग विभेद जैसी समस्याओं से अवगत कराने वाली शिक्षा-प्रणाली को लागू करने से देश में न केवल शिक्षा के स्तर में सुधार आएगा बल्कि साक्षरता का दर भी बढ़ेगा.
(पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित)
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How the mighty have fallen Baheliya Rajpoots! In past we were once high in the Hindu caste system and part of a powerful Rajput army. After a key defeat, we had to hide in the jungles, where we survived by catching birds and animals, honey extraction, all considered inferior jobs. Taking such jobs led to them losing our favorable caste status. Usually landless, many work as day laborers, though we have a tradition of making fans with peacock feathers and selling the birds they catch.
Tuesday, April 2, 2013
शिक्षा व्यवस्था और दलित समाज
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